Read in English | मध्य भारत के घने जंगलों में गूंजने वाली बाघों की दहाड़ अब एक विशाल कोयला-बिजली संयंत्र के शोर में दब सकती है। मध्य प्रदेश के अनूपपुर जिले में छताई, मझटोलिया और उमर्दा गांवों के बीच स्थापित होने वाला अनूपपुर थर्मल पावर प्लांट न केवल एक औद्योगिक परियोजना है, बल्कि यह भारत के सबसे महत्वपूर्ण बाघ संरक्षण कार्यक्रम के लिए एक गंभीर चुनौती बनकर उभरा है।

यह 3.2 गीगावाट (4×800 मेगावाट) की विशाल थर्मल पावर परियोजना, जिसकी अनुमानित लागत 36,600 करोड़ रुपये है, मध्य भारत के सबसे महत्वपूर्ण बाघ गलियारों को काटने की स्थिति में है। पर्यावरणविदों और वन्यजीव विशेषज्ञों का मानना है कि यह परियोजना भारत की टाइगर कॉरिडोर परियोजना के लिए अभूतपूर्व खतरा पैदा कर सकती है।

परियोजना का विकास: वेलस्पन से अडानी तक

प्रारंभिक चरण (2012-2023)

इस परियोजना की शुरुआत 2012 में वेलस्पन एनर्जी के साथ हुई थी, जब कंपनी को 1.32 गीगावाट (2×660 मेगावाट) सुपर-क्रिटिकल कोयला-बिजली संयंत्र के लिए पर्यावरण स्वीकृति मिली थी। उस समय परियोजना का दायरा अपेक्षाकृत सीमित था – केवल 360 हेक्टेयर जमीन (218.53 हेक्टेयर कृषि भूमि और बाकी सरकारी भूमि) की आवश्यकता थी।

प्रारंभिक योजना के अनुसार कोयले की खपत 6.5 मिलियन टन प्रति वर्ष और पानी की मांग 18 क्यूबिक मीटर प्रति सेकंड थी। केवई नदी से पानी की आपूर्ति की योजना बनाई गई थी। हालांकि, वेलस्पन ने निर्माण कार्य शुरू नहीं किया और नवंबर 2023 में स्वीकृति की वैधता समाप्त हो गई।

अडानी का प्रवेश और विस्तार (2023-2024)

2023 में अडानी पावर लिमिटेड ने इस परियोजना का अधिग्रहण किया और अक्टूबर 2024 तक 100 प्रतिशत नियंत्रण हासिल कर लिया। अडानी ग्रुप की सहायक कंपनी अनूपपुर थर्मल एनर्जी (मप्र) प्राइवेट लिमिटेड के नाम से यह परियोजना अब जानी जाती है।

अडानी के नेतृत्व में परियोजना का दायरा नाटकीय रूप से बढ़ा दिया गया। 1.32 गीगावाट से बढ़कर यह 3.2 गीगावाट (4×800 मेगावाट) अल्ट्रा-सुपरक्रिटिकल संयंत्र बन गई। इस विस्तार के साथ जमीन की आवश्यकता भी 371 हेक्टेयर तक बढ़ गई, जिसमें 312 हेक्टेयर निजी और 59 हेक्टेयर सरकारी जमीन शामिल है।

सबसे चिंताजनक बात यह है कि संसाधनों की मांग में भी भारी वृद्धि हुई है। कोयले की खपत बढ़कर 13.3 मिलियन टन प्रति वर्ष हो गई है, जबकि पानी की मांग दोगुनी होकर 36 क्यूबिक मीटर प्रति सेकंड तक पहुंच गई है। अब केवई के साथ-साथ सोन नदी से भी पानी की आपूर्ति की योजना है।

बाघ गलियारों पर मंडराता संकट 

गलियारों का महत्व

बाघ गलियारे जंगलों और अभयारण्यों के बीच प्राकृतिक संकरे कॉरिडोर हैं, जो आमतौर पर 1-5 किमी चौड़े होते हैं। ये गलियारे बाघों को एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में जाने की सुविधा प्रदान करते हैं और उनकी आनुवंशिक विविधता बनाए रखने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।

राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (NTCA) की 2014 की “कनेक्टिंग टाइगर पॉपुलेशन फॉर लॉन्ग-टर्म कंजर्वेशन” रिपोर्ट के अनुसार, मध्य भारत का परिदृश्य वैश्विक स्तर पर सबसे ज्यादा बाघ आनुवंशिक विविधता वाला है। यह क्षेत्र बांधवगढ़, कान्हा, पेंच, संजय दुबरी और अचानकमार अभयारण्यों को जोड़ता है।

परियोजना का प्रभाव

People registered protests at Bijuri Tehsil office against the thermal power project

वन्यजीव संरक्षण ट्रस्ट (WCT) की 2018 की रिपोर्ट के अनुसार, प्रस्तावित परियोजना वाला क्षेत्र “मध्यम से उच्च कनेक्टिविटी” वाला गलियारा है, जो भारत की 31 प्रतिशत बाघ आबादी को जोड़ता है। ये गलियारे न केवल बाघों के लिए, बल्कि भालुओं और 200 से ज्यादा पक्षी प्रजातियों के लिए भी महत्वपूर्ण हैं।

पर्यावरण विशेषज्ञ सौम्या दत्ता इस संकट की गंभीरता को स्पष्ट करते हुए कहते हैं,

“कान्हा-अचानकमार गलियारा भारत के बाघ संरक्षण की रीढ़ है। इसके बिना बाघों की आनुवंशिक विविधता खत्म हो जाएगी और वैश्विक बाघ आबादी का 20 प्रतिशत हिस्सा खतरे में पड़ सकता है।”

वन्यजीव विशेषज्ञ डॉ. राघवेंद्र शर्मा चेतावनी देते हुए कहते हैं,

“अगर कान्हा और अचानकमार के बीच कनेक्टिविटी टूटी, तो बाघों की प्रजनन विविधता खत्म हो जाएगी। उनकी आबादी 20-30 साल में 50 प्रतिशत तक गिर सकती है।”

औद्योगिक प्रभाव की तीव्रता

वेलस्पन की मूल परियोजना में शोर का स्तर 50-60 डेसिबल और ट्रैफिक 100 वाहन प्रतिदिन था। अब अडानी के विस्तार के बाद शोर 70-85 डेसिबल तक बढ़ सकता है और ट्रैफिक 500 वाहन प्रतिदिन तक पहुंच सकता है। यह बाघों की संवेदनशील सुनने की क्षमता और आवाजाही को गंभीर रूप से बाधित करेगा।

सौम्या दत्ता आगे जोड़ते हैं, “बाघों को रात में शांत जंगल चाहिए। इतना शोर और प्रदूषण उन्हें गांवों की ओर धकेलेगा, जिससे मानव-पशु संघर्ष बढ़ेगा।” यह चिंता निराधार नहीं है – अनूपपुर और शहडोल में 2023-24 में बाघों के गांवों में घुसने की 12 घटनाएं दर्ज हुई हैं।

जल संसाधनों पर दबाव

Kevai river near coal power plant site

केवई और सोन नदियों का संकट

परियोजना की विस्तारित योजना के अनुसार, संयंत्र को 36 क्यूबिक मीटर प्रति सेकंड पानी की आवश्यकता होगी। यह पानी मुख्यतः केवई नदी से और आवश्यकता पड़ने पर सोन नदी से लिया जाएगा। केवई नदी, जो सोन नदी की सहायक नदी है, संयंत्र से मात्र 40 मीटर की दूरी पर स्थित है।

सोन नदी मध्य भारत की प्रमुख जल प्रणाली है और स्थानीय समुदायों, कृषि, जैव विविधता और वन्यजीवों के लिए जीवन रेखा का काम करती है। परियोजना से प्रतिवर्ष 4.2 मिलियन टन राख का उत्पादन होगा, जो भारी धातुओं और अन्य हानिकारक पदार्थों के साथ इन नदियों को प्रदूषित कर सकता है।

विशेषज्ञों की चेतावनी

जल संसाधन विशेषज्ञ श्रीपाद धर्माधिकारी कंपनी के दावों को अपर्याप्त मानते हुए कहते हैं,

“कोयला संयंत्रों से निकलने वाली राख और अपशिष्ट नदियों के लिए घातक हैं। केवई और सोन नदियां पहले से ही क्षेत्र की कोयला खदानों के दबाव में हैं। भारी मात्रा में पानी की निकासी और रिसाव से जलीय जैव विविधता, मछलियां और स्थानीय समुदायों की आजीविका खतरे में पड़ सकती है।”

कंपनी ने शून्य तरल निर्वहन (ZLD) प्रणाली और 100 मीटर चौड़ी हरित पट्टी के दावे किए हैं, लेकिन धर्माधिकारी इन पर संदेह जताते हुए कहते हैं, “ZLD और हरित पट्टी के दावे अक्सर कागजी रहते हैं। फ्लाई ऐश डंपिंग से नदियों में रिसाव का खतरा बना रहेगा।”

जनसुनवाई और स्थानीय प्रतिक्रिया

Public hearing held in Chhatai Road, Majhauli Village

15 मई को छतई रोड, मझौली गांव में आयोजित जनसुनवाई में अपर कलेक्टर दिलीप कुमार पांडेय, मप्र प्रदूषण बोर्ड के क्षेत्रीय अधिकारी मुकेश श्रीवास्तव और अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक इसरार मंसूरी उपस्थित थे। तीनों प्रभावित गांवों के ग्रामीणों और स्थानीय कार्यकर्ताओं ने अपनी 14 सूत्री मांगें रखीं।

प्रशासन ने इस सुनवाई को सफल बताया है, लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि इसमें पारदर्शिता की कमी थी और बाघ गलियारों पर पड़ने वाले प्रभाव को छिपाने की कोशिश की गई।

आगे की राह: संरक्षण बनाम विकास

पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEF&CC) ने कंपनी से 10 किमी के दायरे में व्यापक पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (EIA) रिपोर्ट तैयार करने को कहा है। संरक्षणवादियों की मांग है कि परियोजना को राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड (NBWL) की मंजूरी के दायरे में लाया जाए।

विशेषज्ञों का आरोप है कि कंपनी ने पर्यावरण मंजूरी प्राप्त करने के लिए 2018 के नवीन अध्ययनों को छिपाकर 2014 की पुरानी NTCA रिपोर्ट का हवाला दिया है, जबकि अनूपपुर कान्हा-अचानकमार बाघ गलियारे का अत्यंत महत्वपूर्ण हिस्सा है।

निष्कर्ष: एक महत्वपूर्ण मोड़

अनूपपुर थर्मल पावर प्लांट का मामला भारत के सामने एक महत्वपूर्ण सवाल खड़ा करता है। एक तरफ ऊर्जा सुरक्षा और औद्योगिक विकास की आवश्यकता है, दूसरी तरफ वैश्विक स्तर पर प्रशंसित बाघ संरक्षण कार्यक्रम का भविष्य दांव पर है।

भारत का बाघ संरक्षण मॉडल वैश्विक मिसाल बना है। प्रोजेक्ट टाइगर की सफलता ने दुनिया को दिखाया है कि समर्पित प्रयासों से विलुप्तप्राय प्रजातियों को बचाया जा सकता है। लेकिन अब सवाल यह है कि क्या हम औद्योगिक लालच के लिए इस उपलब्धि को दांव पर लगाने को तैयार हैं?

समय की मांग है कि ऐसा रास्ता निकाला जाए जो सहअस्तित्व की बात करता हो – जहां विकास हो लेकिन पर्यावरण और वन्यजीव संरक्षण की कीमत पर नहीं। अनूपपुर का फैसला न केवल स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र का भविष्य तय करेगा, बल्कि यह भारत की पर्यावरण नीति की दिशा भी निर्धारित करेगा।

अगले कुछ महीनों में जो निर्णय लिए जाएंगे, वे तय करेंगे कि भारत का बाघ संरक्षण कार्यक्रम आगे बढ़ता रहेगा या फिर औद्योगिक दबाव के आगे घुटने टेक देगा। यह न केवल बाघों के लिए, बल्कि समूची जैव विविधता और आने वाली पीढ़ियों के लिए एक निर्णायक क्षण है। 

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Visual storyteller, and climate journalist based in Sehore, Madhya Pradesh.

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