दिसंबर के पहले सप्ताह में राजस्थान में आयोजित हुए तीन दिवसीय ‘राइजिंग राजस्थान ग्लोबल इंवेस्टमेंट समिट 2024’ सुर्ख़ियों में रहा. इस दौरान करीब 30 ट्रिलियन निवेश से संबंधित एमओयू पर हस्ताक्षर हुए. राज्य सरकार को उम्मीद है कि इससे राज्य को विकास की राह में आगे बढ़ने में मज़बूती मिलेगी. इस समय राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों को विकास की सबसे अधिक ज़रूरत है. राज्य के कई ऐसे ग्रामीण क्षेत्र हैं जो आज भी सरकारी योजनाओं की पहुंच से दूर हैं. इन क्षेत्रों के निवासी मूलभूत आवश्यकताएं भी प्राप्त करने में सक्षम नहीं हुए हैं. वहीं बच्चों को भी उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए संघर्ष करनी पड़ती है. इसमें सबसे अधिक नुकसान किशोरियों और महिलाओं को हो रही है. हालांकि सरकार की ओर से गांव के विकास के लिए कई योजनाएं संचालित की जा रही है. लेकिन सामाजिक जागरूकता और कई अन्य कारणों से ग्रामीण इन योजनाओं का पूरी तरह से लाभ नहीं उठा पा रहे हैं.

राज्य का नाचनबाड़ी गांव भी इन्हीं में एक है. अजमेर से करीब 11 किमी दूर घूघरा पंचायत स्थित इस गांव में लगभग 500 घर है, जहां अधिकतर कालबेलिया और बंजारा समुदाय की बहुलता है. जिन्हें सरकार की ओर से अनुसूचित जनजाति समुदाय का दर्जा प्राप्त है. जबकि कुछ घर आर्थिक और सामाजिक रूप से सक्षम परिवारों के हैं. जिनके घर पक्के नज़र आते हैं. अधिकतर घर अर्ध निर्मित या झोंपड़ी वाले ही नज़र आएंगे. गांव के अधिकतर युवाओं के पास रोज़गार का कोई स्थाई साधन नहीं है. वह प्रतिदिन मज़दूरी करने अजमेर जाते हैं. जहां कभी काम मिलता है तो कभी पूरे दिन खाली बैठ कर घर वापस लौट आते हैं. गांव की 35 वर्षीय गौरा देवी बताती हैं “हमारे पास आजीविका का कोई स्थाई साधन नहीं है. पति मज़दूरी करने अजमेर जाते हैं. वह जो कुछ कमाते हैं उससे किसी प्रकार गुज़ारा चलता है. इससे आगे कोई उन्नति नहीं है. इसीलिए हमारा घर झोंपड़ी का है. हमें आज तक किसी योजना का लाभ नहीं मिला है क्योंकि इसका लाभ कैसे मिलता है यह बताने वाला कोई नहीं है.” गौरा देवी के दो बेटे और एक बेटी है. जो बकरियां चराने का काम करते हैं. वह कहती हैं कि “गांव में पांचवी तक स्कूल है. इसके आगे पढ़ने के लिए 2 किमी दूर घूघरा जाना पड़ता है. घर की आमदनी इतनी नहीं है कि बच्चों को घूघरा भेज कर पढ़ाऊं”.

वहीं 55 वर्षीय रतननाथ कहते हैं, “मेरे परिवार में पत्नी और दो लड़के हैं. अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए मैं मजदूरी करता हूं. हमारे रहने के लिए एक कच्ची झोंपड़ी है. मैंने दो वर्ष पूर्व प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत घर के लिए आवेदन दिया था. लेकिन मुझे अभी तक इसका लाभ नहीं मिला है. हालांकि पंचायत के रजिस्टर में मेरे परिवार का नाम दर्ज है.” उन्होंने कहा कि “मैं अपनी सीमित कमाई से परिवार चला रहा हूं. इसलिए घर में पक्के शौचालय तक बनाने के लिए पैसे जोड़ने में सक्षम नहीं हूं. आर्थिक समस्याओं के कारण ही मेरे बच्चों ने पढ़ाई छोड़ दी है और अब वे मवेशियों को चराने और घर का काम करते हैं.” 50 वर्षीय सीता देवी कहती हैं कि “मेरे दो बेटे हैं. सभी का अपना परिवार है. लेकिन किसी के पास भी रोज़गार का स्थाई साधन नहीं है. वह सभी मज़दूरी करने अजमेर शहर जाते हैं. जहां कभी उन्हें काम मिलता है तो कभी खाली हाथ वापस आ जाते हैं. पूरे महीने उन्हें 10 से 15 दिन ही काम मिलता है. जिसमें एक दिन में 300 से 500 रुपए तक ही मिलते हैं. इतनी कम आमदनी में परिवार का भरण पोषण करना बहुत मुश्किल होता है.” सरकारी योजनाओं के संबंध में सीता देवी कहती हैं कि घर में शौचालय बनाने के लिए पैसे मिले थे. लेकिन वह राशि इतनी कम थी कि इससे पानी की सुविधा के साथ पक्का शौचालय घर नहीं बन सकता है.

हालांकि राजस्थान सरकार की ओर से मुख्यमंत्री लघु उद्योग प्रोत्साहन योजना की शुरुआत की गई है. इसके तहत राज्य के बेरोजगार युवाओं को रोजगार शुरू करने के लिए बैंक से लोन दिया जाता है. इस योजना में सरकार द्वारा व्यवसाय के आधार पर 25 लाख रुपए से लेकर 10 करोड़ रुपए तक लोन दिया जाता है. योजना के तहत उपलब्ध कराए जाने वाला लोन बैंकों के माध्यम से दिया जाता है. इसमें सरकार द्वारा सब्सिडी भी दी जाती है ताकि युवाओं को ऋण चुकता करने में कोई मानसिक दबाव न पड़े. इसके अतिरिक्त इस वर्ष के केंद्रीय बजट में भी ग्रामीण क्षेत्रों के विकास पर भी खास फोकस करते हुए रोज़गार सृजन की बात की गई है. इसके लिए स्किल डेवलपमेंट से लेकर एजुकेशन लोन, अप्रेंटिसशिप के लिए इंसेंटिव, ईपीएफ में अंशदान के साथ पहली नौकरी पाने वालों के लिए सैलरी में योगदान और न्यू पेंशन सिस्टम के लिए योगदान में बढ़ोतरी जैसे महत्वपूर्ण कदम उठाये गये हैं.

सिर्फ योजनाएं ही नहीं, बल्कि शिक्षा के मामले में भी नाचनबाड़ी गांव पीछे है. आर्थिक और सामाजिक पिछड़ेपन के कारण गांव के अधिकतर बच्चे पढ़ाई से दूर हो रहे हैं. जो आगे चलकर उनके लिए रोज़गार प्राप्त करने में एक बड़ी रुकावट बन जाती है. एक अभिभावक नौतन नाथ कहते हैं कि  गांव में केवल एक प्राइमरी स्कूल है. जहां पांचवीं तक पढ़ाई होती है. इसके बाद बच्चों को माध्यमिक और उच्च शिक्षा के लिए घूघरा जाना पड़ता है. इस प्राथमिक विद्यालय में कुल 40 बच्चे नामांकित हैं. जिनमें 18 लड़कियां और 22 लड़के हैं. इन्हें पढ़ाने के लिए तीन शिक्षक हैं. उनके अनुसार इस प्राथमिक विद्यालय में सुविधाओं की काफी कमी है. स्कूल में शौचालय बच्चों के इस्तेमाल के लायक नहीं है. इसके अतिरिक्त स्कूल में पीने के साफ़ पानी की भी कमी है. एक हैंडपंप लगा हुआ है जिससे अक्सर खारा पानी आता है. इसे पीकर बच्चे बीमार हो जाते हैं. यही कारण है कि अक्सर बच्चे स्कूल नहीं आते हैं. नौतन नाथ कहते हैं कि प्राथमिक शिक्षा बच्चों की बुनियाद को बेहतर बनाने में मददगार साबित होती है. लेकिन जब सुविधाओं की कमी के कारण बच्चे स्कूल ही नहीं जायेंगे तो उनकी बुनियाद कैसे मज़बूत होगी? उन्हें आगे की शिक्षा प्राप्त करने में कठिनाई आएगी.

एक अन्य अभिभावक 55 वर्षीय भेरुनाथ बताते हैं कि “गांव में हाई स्कूल की कमी का सबसे बड़ा खामियाज़ा लड़कियों को भुगतना पड़ता है. पांचवीं के बाद उन्हें आगे पढ़ने के लिए दूसरे गांव जाना पड़ता है. जहां भेजने के लिए अधिकतर अभिभावक तैयार नहीं होते हैं. इसलिए लड़कियों की आगे की शिक्षा रुक जाती है.” वह कहते हैं कि “घूघरा जाने वाला रास्ता अक्सर सुनसान रहता है. कई बार दूसरे गांव के लड़कों द्वारा किशोरियों के साथ बदतमीज़ी की शिकायतें आई हैं. यह लड़के उच्च और आर्थिक रूप से संपन्न परिवार के होते हैं. यही कारण है कि अभिभावक किसी अनहोनी की आशंका से लड़कियों की शिक्षा छुड़वा देते हैं.

भेरुनाथ की पड़ोसी बिमला देवी कहती हैं कि स्कूल में शिक्षक नियमित रूप से आते हैं लेकिन अक्सर विभाग के कागज़ी कामों में व्यस्त होने के कारण वह बच्चों को पढ़ाने में बहुत अधिक समय नहीं दे पाते हैं. जिससे बच्चे पढ़ने की जगह स्कूल में केवल समय काट कर आ जाते हैं. इससे उनकी शैक्षणिक गतिविधियां बहुत अधिक प्रभावित हो रही हैं. गांव के अधिकतर अभिभावक नाममात्र के शिक्षित हैं. इसलिए वह अपने बच्चों को घर में भी पढ़ा नहीं पाते हैं. इन कमियों की वजह से नाचनबाड़ी गांव के बच्चों की बुनियादी शिक्षा ही कमज़ोर हो रही है, जिससे उन्हें आगे की कक्षाओं में काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है. यही कारण है कि अधिकतर बच्चे पढ़ाई छोड़ देते हैं. वह कहती हैं कि इसका सबसे नकारात्मक प्रभाव बालिकाओं की शिक्षा पर पड़ता है. बुनियाद कमज़ोर होने के कारण उच्च शिक्षण संस्थाओं में उन्हें मुश्किलें आती हैं. बिमला देवी कहती हैं कि शिक्षक और अन्य कर्मचारी को मिलाकर इस स्कूल में पांच पद खाली हैं. यदि इन्हें भर दिया जाए तो बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा उपलब्ध हो सकेगी.

गांव के सामाजिक कार्यकर्ता वीरम नाथ कहते हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में संचालित प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षा के प्रभावित होने के कई कारण हैं. सबसे बड़ी वजह इन स्कूलों में कई वर्षों तक शिक्षकों के पद खाली रहते हैं. जिसके कारण स्कूल में मौजूद एक शिक्षक के ऊपर अपने विषय के अतिरिक्त अन्य विषयों को पढ़ाने और समय पर सिलेबस खत्म करने की जिम्मेदारी तो होती ही है साथ में उन्हें ऑफिस का काम भी देखना होता है. बच्चों की उपस्थिति, मिड डे मील और अन्य ज़रूरतों से संबंधित विभागीय कामों को पूरा करने में ही उनका समय निकल जाता है. जिससे बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा नहीं मिल पाती है.

वह कहते हैं कि इन सरकारी स्कूलों में गांव के अधिकतर आर्थिक और सामाजिक रूप से बेहद कमजोर परिवार के बच्चे ही पढ़ने आते हैं. लेकिन जो परिवार आर्थिक रूप से अपेक्षाकृत बेहतर होते हैं वह अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूल में पढ़ाना पसंद करते हैं. वीरम नाथ कहते हैं कि पूरे राज्य के सरकारी स्कूलों के सभी पदों को मिलाकर करीब एक लाख से अधिक पद खाली हैं. जिन्हें प्राथमिकता के आधार पर जल्द भरने की जरूरत है. इन खाली पदों के कारण शिक्षा कितना प्रभावित हो रही होगी इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है. हालांकि जिस प्रकार से राज्य सरकार इस दिशा में प्रयास कर रही है इससे आशा है कि जल्द ही इन कमियों को दूर कर लिया जाएगा.

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Journalist, focused on environmental reporting, exploring the intersections of wildlife, ecology, and social justice. Passionate about highlighting the environmental impacts on marginalized communities, including women, tribal groups, the economically vulnerable, and LGBTQ+ individuals.

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