मध्यप्रदेश के कूनो नेशलन पार्क (Kuno National Park) में चलाया जा रहा चीतों का पुनर्वास कार्यक्रम एक बहुत ही महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट माना गया था। भारत में अफ्रीका से 20 चीते लाए गए थे, इनमें से 10 की मृत्यु हो चुकी थी। हालांकि मार्च के महीने में गामिनी ने 6 नए शावकों को जन्म भी दिया था। लेकिन अब कि जब भारत में इस परियोजना का दूसरा चरण शुरू होने जा रहा है, इसकी व्यवहार्यता सवालों के घेरे में है। अब भारत में प्रोजेक्ट चीता की सफलता पूरी तरह से इन शावकों के सर्वाइवल पर निर्भर करती है। आइये समझने का प्रयास करते है, कैसी है चीतों की उत्तरजीविता और क्या हैं इन मौतों की वजहें। 

भारत में 26 चीते 

मध्यप्रदेश में सितंबर 2022 में नामीबिया से 8, और फरवरी 2023 में दक्षिण अफ्रीका से 12 चीते लाए गए थे। इन लाए जाए गए चीतों में से ज्वाला चीता ने चार शावकों को जन्म दिया था जिन में 3 शावकों की मृत्यु हो गई थी। इसके बाद जनवरी 2024 में आशा चीता ने 3 शावकों को जन्म दिया था। मार्च महीने में चीता गामिनी ने 6 शावकों को जन्म दिया था। हालांकि इन शावकों का जन्म एक सकारात्मक घटना है, लेकिन इन सभी का प्रजनन बोमा (V आकर की बाड़ी) के अंदर हुआ था। और जन्म के बाद से ये सभी चीते बाड़े के अंदर ही सुरक्षित है। खुले जंगल में इन चीतों का सर्वाइवल अभी परखा जाना शेष है। 

चीते का प्रजनन और सर्वाइवल 

चीता आमतौर से सक्रिय प्रजनन करने वाला जीव माना जाता है। लेकिन इसके बाद भी चीते की आबादी संकटग्रस्त है। चीतों के 90 फीसदी शावक 3 महीने से ज्यादा जीवित नहीं रह पाते हैं। इनमें से 50 फीसदी शावक जंगल के खतरनाक शिकारी जानवरों का आहार बन जाते हैं, और बाकी के 40 फीसदी जंगल की सीमित अनुवांशिक विविधता का शिकार बनते हैं। 

इसका बड़ा कारण है कि बाकी जानवरों की तरह ही मर्द चीते भी शावकों की देखभाल की जिम्मेदारी नहीं उठाते है। मादा चीता को शिकार और भोजन के लिए अपने नन्हे शावकों को पीछे छोड़कर जाना पड़ता है। अगर यह मादा उनके साथ रहे तो भी वह अकेले अपने शावकों की शिकारियों से देखभाल शायद ही कर पाए। 

एक चीते का शावक शिकार करना तो 8 महीने में ही शुरू कर देता है, लेकिन 3 साल तक भी वह एक कुशल शिकारी नहीं बन पाता है। चीतों की पहले से ही कम संख्या शावकों की सुरक्षा को खतरे में डालती हैं, और सीमित अनुवांशिक विविधता चीतों का इम्यून सिस्टम कमजोर करती है, जिससे ये बिमारियों के खतरे के दायरे में रहते हैं। 

चीतों की सीमित संख्या उनके संरक्षण के लिए एक ऐसा दुष्चक्र बन गई है, जिससे न तो वे अपनी आबादी की रक्षा कर पा रहे हैं, और न ही आबादी बढ़ा पा रहे हैं। आज दुनिया भर में चीतों की 2 प्रजातियां हैं और दोनों ही बेहतर स्थिति में नहीं है। अफ्रीकी चीते IUCN की सूची में वल्नरेबल की कैटेगरी में आते हैं और वहीं एशियाई चीते, क्रिटिकली इंडेंजर्ड की सूची में आते हैं।   

सीमित जीन पूल की समस्या 

चीतों के स्पर्म सैंपल को इकट्ठा करके शोध किया गया था। चीतों के स्पर्म में 70 फीसदी स्पर्म अबनॉर्मल थे और 20 फीसदी से अधिक सैंपल में इनफर्टिलिटी के लक्षण थे। इसके अलावा अमेरिका, यूरोप, आफ्रिका के 55 चीतों का ब्लड सैंपल भी परखा गया था, ये सैंपल अफ्रीकी नस्ल के चीतों के थे। आनुवंशिक विविधता निर्धारित करने के लिए कुल 52 ब्लड प्रोटीन सैंपल की जांच की गई थी। जहां बांकी प्रजातियों पर किए गए इस तरह के परीक्षण में आम तौर पर 10 से 50 फीसदी की आनुवंशिक विविधता दिखाई देती है, लेकिन चीतों के परीक्षण में अनुवांशिक विविधता बहुत ही सीमित पाई गई। ये अनुवांशिक विविधता की कमी चीतों की नस्लों को कमजोर बनाती है। 

प्रोजेक्ट की सफलता के मापदंड 

भारतीय वन्य जीव संस्थान की रिपोर्ट ‘एक्शन प्लान फॉर इंट्रोडक्शन ऑफ चीता इन इंडिया‘ में इस प्रोजेक्ट की सफलता के 6 पैमाने रखे गए हैं। पहले साल में लाए गए चीतों का 50 फीसदी सर्वाइवल, जिसमे यह प्रोजेक्ट सफल रहा है। चीते का सफल प्रजनन, हालांकि भारत में पहला प्रजनन बोमा (V आकर का एक बाड़ा) में हुआ था, लेकिन उसके बाद भारत में दो और सफल प्रजनन भी हो चुके हैं। 

इसके अलावा शावकों की एक साल से अधिक उत्तरजीविता, चीतों की F1 जेनेरेशन का द्वारा प्रजनन, और चीतों का स्थानीय समुदाय के जीवन में योगदान 3 अन्य पैमाने माने गए हैं। हालांकि इनके आधार पर प्रोजेक्ट की सफलता को आंकने में लंबा समय लगेगा। 

वहीं इस रिपोर्ट में इस प्रोजेक्ट की विफलता का एक ही आधार दिया गया है। 5 साल के दरमियान अगर एक भी चीता नहीं बचता है या अपना वंश आगे नहीं बढ़ा पाता है तभी इस प्रोजेक्ट को असफल माना जा सकता है। 

हालांकि भारत में प्रोजेक्ट चीता की यात्रा पर निश्चित तौर पर कुछ भी कहना जल्दबाजी है। लेकिन अगर इसे लेकर निराश करने वाले तथ्य हैं तो साथ कई आशा के संकेत भी हैं। भारत में प्रोजेक्ट चीता की सफलता या विफलता 5 साल यानि साल 2027 के बाद ही आंकी जा सकेगी।  

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Journalist, focused on environmental reporting, exploring the intersections of wildlife, ecology, and social justice. Passionate about highlighting the environmental impacts on marginalized communities, including women, tribal groups, the economically vulnerable, and LGBTQ+ individuals.

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