बीते कुछ सालों से भारत में शेरों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। भारत अपने शेरों की बढ़ती संख्या को लेकर यहां तक आश्वस्त है कि अब भारत अपने शेर कंबोडिया भी भेजने जा रहा है। लेकिन इस बढ़ती आबादी के बरक्स भारत के जंगल लगातार सिकुड़ते जा रहे हैं। 

एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत के 30 फीसदी शेर अपने संरक्षित क्षेत्र के बाहर विचरण करने को मजबूर हैं। इस फर्क का सीधा दुष्परिणाम मानव-शेर संघर्ष के रूप में परिणत होता है। सिर्फ साल 2020 में ही पेंच में 17 मानव-शेर संघर्ष देखने को मिले थे, जिसमें 6 लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी। ग्रो-ट्रीज नाम की संस्था इसी मुद्दे को केंद्र में रखते हुए पेंच के जंगलों से लगे एक गांव में ट्रीज फॉर टाइगर्स नाम का प्रोजेक्ट चला रही है। आइये जानते हैं क्या है ट्री फॉर टाइगर्स प्रोजेक्ट। 

क्या है ट्री फॉर टाइगर्स प्रोजेक्ट 

ट्री फॉर टाइगर्स प्रोजेक्ट, ग्रो-ट्रीज नाम की संस्था द्वारा चलाई जा रही एक परियोजना है। यह परियोजना देश के सुंदरबन, रामटेक जैसे कई वन क्षेत्रों में चलाई जा रही है। इस परियोजना में जंगल से लगे क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण किया जाता है। 

मध्यप्रदेश में यह परियोजना पेंच से सटे सिवनी जिले के एक छोटे से गांव पोतलई में चलाई जा रही है। इस परियोजना के पीछे मूलतः 4 उद्देश्य बताए गए हैं, जैसे कि, ग्रीन कवर बढ़ाना, मानव-वन्यजीव संघर्ष को सीमित करना, वाइल्डलाइफ हैबिटैट में सुधार, और स्थानीय लोगों को रोजगार प्रदान करना। इन्हीं उद्देश्यों को पूरा करने के लिए पोतलई गांव में, 5 हेक्टेयर भूमि में  20140 वृक्ष रोपे गए हैं। 

मानव वन्य जीव संघर्ष 

दरअसल गांव के लोग अक्सर फल, औषधि, और जलाऊ लकड़ियां लेने जंगल में जाते हैं। इस वजह से जंगल में गांववालों पर शेर के हमले का खतरा बढ़ जाता है। इसलिए अगर जरूरी वन संसाधन गांववालों को गांव के समीप ही उपलब्ध करा दिए जाएंगे, तो मानव-शेर संघर्ष का खतरा सीमित हो सकेगा। इसके अतिरिक्त ट्रीज फॉर टाइगर्स प्रोजेक्ट में इस बात को भी सुनिश्चित किया गया है की वृक्षारोपण के माध्यम से गांव वालों को रोजगार भी मुहैय्या कराया जाए। 

पोतलई गांव में रहने वाले 23 वर्षीय सुखराम ने भी इस परियोजना में अपने हिस्से का श्रम लगाया है। सुखराम बताते हैं कि कई बार गांव वाले लकड़ियां लेने और सीताफल वगैरह लेने जंगलों में जाते है। इस दौरान कई लोगों पर शेर ने हमला भी किया है। इसके अलावा कई बार शेर ने पालतू जानवरों को भी शिकार बनाया है। ग्राउंड रिपोर्ट से हुई बातचीत में सुखराम ने कहा कि,

हमें अक्सर अलग-अलग कामों से जंगलों में जाना पड़ता है। हाल-फिलहाल में ही कई बार शेर हमारे खेत खलिहानों में आया है। हमें उसके पंजे के निशान दिखाई दिए हैं, इसकी तस्वीर भी हमने वन विभाग को भेजी है। 

हमारे गांव में जो पेड़ लग रहे है, उसमें 20-25 दिन मैंने भी काम किया है। आशा करता हूँ कि जल्दी ही पेड़ बड़े हों, और हमें अपनी जरूरतों के लिए जंगलों में न जाना पड़े। 

वृक्षारोपण के वक्त किन बातों का ध्यान रखा जाता है 

हमसे बातचीत के दौरान इस प्रोजेक्ट के प्रोजेक्ट मैनेजर राजू जाटव ने बताया कि सबसे पहले वो गांव वालों से संवाद स्थापित करते हैं। इस परियोजना में उनकी टीम ने गांव वालों से मिल कर ही पौधों की प्रजातियां तय की थीं। 

वृक्षारोपण के वक्त इस बात का खास ध्यान रखा गया है कि मिश्रित प्रजातियों के पौधों को लगाया जाए। ग्रो-ट्रीज और गांव के लोगों ने मिल कर 10 प्रजाति के वृक्षों का चुनाव किया है। इसमें फलदार वृक्ष, औषधीय पौधे, और गैर-फलदार वृक्षों को शामिल किया गया है। इन वृक्षों में अमरुद, आम, सीताफल, आंवला, करंज, शीशम, सागौन, कसोड़, बेर, और बांस का वृक्षारोपण किया गया है। 

इन प्रजातियों के चुनाव के पीछे की मुख्य वजह हैं कि यह स्वदेशी प्रजाति के वृक्ष हैं। इसके अलावा ये वृक्ष-समूह गांव वालों की औषधि, फल, से लेकर लकड़ियों तक की सभी जरूरतों को पूरा कर सकेंगे। विभिन्न प्रकार के वृक्षों को लगाने का एक प्रमुख कारण यह भी है, कि इससे मृदा का पोषण संतुलित रहेगा।

भूमि का चुनाव

राजू बताते हैं वृक्षारोपण के लिए ग्राम पंचायत के अंतर्गत आने वाली सामुदायिक भूमि का चुनाव किया गया है। इसके लिए उन्होंने सबसे पहले गांव के सरपंच से अनुमति पत्र लिया है उसके बाद काम शुरू किया है। इन औपचारिकताओं पर बात करते हुए राजू कहते हैं कि, 

इसका सामान्य उद्देश्य था कि पंचायत की जमीन होने की वजह से कल को ये पेड़ किसी जमीनी विवाद की भेंट नहीं चढ़ेंगे। इसके अलावा बिना ग्राम पंचायत की अनुमति से इन पेड़ों को काटा नहीं जा सकेगा। 

वृक्षारोपण से पूर्व पोतलई 

इसके अलावा इस परियोजना में गढ्ढे खोदने से लेकर वृक्षारोपण तक का काम गांव के लोगों से ही लिया गया है। राजू बतातें हैं कि उन्होंने जून के अंत से यह कार्य शुरू कर दिया था। चूंकि वृक्ष बहुत अधिक थे, और उन्हें बारिश के दो महीनों में ही वृक्षारोपण करना था। इसलिए उन्होंने पोतलई के अलावा आसपास के गांव के लोगों को भी इस काम में शामिल किया था। 

हालांकि राजू की टीम चाहती थी की इस काम में महिलाओं और पुरुषों की बराबर की भागीदारी हो, लेकिन इस काम में महिलाओं की भागीदारी सीमित ही रही है। राजू ने बताया कि इन 2 महीनों में इस परियोजना के जरिये 180 से अधिक कार्य दिवस का रोजगार तैयार किया है। रवि आत्माराम वाडेकर भी उन लोगों में से एक हैं जिन्होंने इस परियोजना में काम किया है। अपने अनुभवों को लेकर रवि कहते हैं कि, 

हमने लगभग 22 दिन इसमें काम किया है, इसके लिए हमें 300 रुपये मजदूरी, और आने-जाने का खर्च भी मिलता था। हमें ये अच्छा लगा कि अमरुद, आम वगैरह के पेड़ भी लगे हैं। हमारा 5 लोगों का परिवार है। हमें बस अब इनके बड़े होने का इंतज़ार है, ताकि हम सब इसका लाभ उठा सकें ।  

वृक्षों की सुरक्षा भी गांव कर रहा है 

राजू बताते हैं कि उन्होंने गांव के ही व्यक्ति को देखभाल के लिए रखा हुआ है। इसके अलावा गांव इन वृक्षों को पानी इत्यादि देने में भीपूरा सहयोग देता है। राजू आगे कहते हैं कि,

इस परियोजना में शुरू से ही गांव वाले साथ हैं। इसमें उनका श्रम लगा है, इससे गांव वाले इन वृक्षों को लेकर जिम्मेदारी का न अनुभव करते हैं। 

राजू बताते हैं की अगले 2 वर्षों तक उनकी टीम पोतलाई के इन 20,140 वृक्षों का ध्यान रखेगी। इस दौरान हमने गांव वृक्षारोपण क्षेत्र में आने जाने और अपने जानवर लाने के लिए सख्ती से मना किया है। इसके अलावा हमने गांव वालों से यह भी अनुरोध किया है कि जानवरों के खिलाने के पत्तियां तोड़ें, छोटी टहनियां आदि लें, लेकिन पेड़ न काटें। गांव के लोग भी इस कार्यक्रम को लेकर उत्साह में हैं। गांव के सरपंच नरेश सिंह टेकाम कहते हैं कि,

हमारा गाँव जंगल से लगा हुआ है, यहां छोटे बड़े सभी लोगों को मिलाकर 700-800 जन रहते हैं। यहां अक्सर शेर आते हैं और पालतू जानवरों पर हमला भी करते हैं। इसके लिए हमने कई बार वन विभाग की मदद भी ली है। लेकिन इस वृक्षारोपण के माध्यम से लगता है कि इस समस्या का ठोस समाधान निकल सकेगा। इससे हमारे गांव का वातावरण भी साफ़ सुथरा रहेगा और फल के साथ आमदनी भी आएगी। 

वे आगे कहते हैं कि, हमारे गांव में जंगली पेड़ तो हैं, लेकिन हमारे द्वारा लगाए हुए पेड़ कम हैं। वृक्षारोपण के इस काम में सारे गांव के लोगों ने श्रम किया है। वे खुश हैं कि उनके गाँव में इतनी बड़ी मात्रा में पेड़ पौधे लग रहे हैं।

राजू ने बताया कि उन्होंने गांव वालों से लगातार संवाद स्थापित करके जागरूकता फैलाई है। वे इस प्रोजेक्ट को सफल बनाने के लिए पूरी तरह प्रतिबद्ध हैं।  अगर इन दो सालों में में कोई पेड़ नहीं पनप पाता है तो उसकी जगह पर नया पौधा लगाया जाएगा। 

लेकिन कुछ ऐसी चीजें भी हैं जिसे लेकर राजू आशंकित हैं। राजू ने बताया,

पिछले कुछ सालों में यहां के जंगलों में आग लगने की कई घटनाएं हुई हैं। हालांकि हमने गांव वालों को इसे लेकर जागरुक करने का प्रयास किया है, लेकिन फिर भी ऐसी घटनाएं हमारे नियंत्रण में नहीं रहतीं हैं। इसके अलावा पिछले वर्ष भीषण गर्मी पड़ी थी। अगर इस वर्ष भी वैसी ही या अधिक गर्मी पड़ी तो भी पेड़ों को खतरा हो सकता है।

बीते कुछ साल से पेंच के जंगल कई बार जंगल की आग में झुलसे हैं। साल 2001 से 2023 तक सिवनी जिले ने 19 हेक्टेयर का ट्री-कवर जंगलों की आग की वजह से खोया है। वहीं  छिंदवाड़ा जिले के लगभग 17 फीसदी जंगल बीते 22 सालों में वनाग्नि की भेंट चढ़े हैं। 

ये आंकड़े बताते हैं कि पेंच का ट्री-कवर बचाने के लिए यहां के जंगलों में बेहतर सुरक्षा और तकनीकी प्रयास की दरकार है। इसके अतिरिक्त देश भर में लगातार घटते जंगल और वनक्षेत्र में मानवीय दखल ने मानव-वन्यजीव संघर्ष की संभावना बढ़ा दी है। इन घटनाओं के साथ ही पर्यावरण के मुख्य अवयव ही परस्पर दुश्मन बनते जा रहे हैं। वर्तमान समय वन्यजीव संरक्षण के साथ ही मानव वन्यजीवों के बीच सहचर्य बढ़ाने के लिए समग्र प्रयास की अपेक्षा करता है।

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Journalist, focused on environmental reporting, exploring the intersections of wildlife, ecology, and social justice. Passionate about highlighting the environmental impacts on marginalized communities, including women, tribal groups, the economically vulnerable, and LGBTQ+ individuals.

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